मुंबई, 12 अक्टूबर। संगीत की दुनिया में कुछ आवाजें ऐसी होती हैं, जो सीमाओं और संस्कृतियों को पार कर जाती हैं। नुसरत फतेह अली खान ऐसी ही एक अद्वितीय आवाज थे, जिन्हें 'कव्वाली के बादशाह' के नाम से जाना जाता है।
13 अक्टूबर 1948 को पाकिस्तान के फैसलाबाद में जन्मे नुसरत ने सूफी संगीत को न केवल जीवित रखा, बल्कि इसे वैश्विक स्तर पर एक नई पहचान भी दी। उनकी आवाज में एक जादू था, जो सुनने वालों को एक आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाता था।
उनकी प्रसिद्ध कव्वालियों जैसे 'दम मस्त मस्त', 'अल्लाह हू', और 'इक पल चैन न आए' केवल गीत नहीं थे, बल्कि आत्मा की गहराई से निकली पुकार थीं। नुसरत की गायकी में सूफियाना अंदाज और रागों की गहराई का ऐसा अनूठा मिश्रण था कि श्रोता उसमें खो जाता था। उन्होंने सैकड़ों साल पुरानी कव्वाली परंपरा को नई पीढ़ी तक पहुंचाया और इसे पश्चिमी संगीत के साथ जोड़कर एक नया रंग दिया।
नुसरत ने हॉलीवुड फिल्म 'डेड मैन वॉकिंग' में एक ऐसा आलाप दिया, जो फिल्म के सबसे यादगार क्षणों में से एक बन गया। उनके लाइव प्रदर्शन एक जादुई अनुभव होते थे, जहां नुसरत का उत्साह, उनकी आंखों की चमक और हाथों की लयबद्ध थिरकन एक अद्भुत माहौल बनाते थे।
उनकी आवाज में वह शक्ति थी, जो दिलों को जोड़ती थी, चाहे वह लंदन का कॉन्सर्ट हो या लाहौर की संकरी गलियां। नुसरत की आवाज में ऐसा जादू था जो श्रोताओं को सीधे खुदा से जोड़ देता था। उनके ऊपर कई किताबें लिखी गई हैं, जिनमें लेखक अहमद अकील रूबी ने अपनी किताब 'नुसरत फतेह अली खान: ए लिविंग लेजेंड' में उनके करियर से जुड़े कई दिलचस्प किस्से साझा किए हैं।
इसमें एक किस्सा भारतीय फिल्म निर्देशक शेखर कपूर से जुड़ा है, जब वह अपनी चर्चित फिल्म 'बैंडिट क्वीन' के लिए बैकग्राउंड स्कोर पर काम कर रहे थे। फिल्म का विषय बेहद संवेदनशील था, खासकर बेहमई नरसंहार और उसके बाद के दर्द को दर्शाने वाले दृश्यों के लिए गहरे और आध्यात्मिक संगीत की आवश्यकता थी।
स्टूडियो में रिकॉर्डिंग के दौरान, नुसरत ने शेखर कपूर से एक अनोखी शर्त रखी। उन्होंने कहा, "शेखर जी, आप अपनी फिल्म देखिए और मैं आपकी आंखों में देखकर गाऊंगा।" शेखर ने उनकी बात मान ली। जैसे ही रिकॉर्डिंग शुरू हुई, एक अजीब सा सन्नाटा छा गया। शेखर ने महसूस किया कि नुसरत केवल धुन नहीं गा रहे थे, बल्कि उनकी आत्मा को पढ़ रहे थे।
शेखर कपूर ने बाद में इस पल को याद करते हुए कहा कि यह एक साधारण रिकॉर्डिंग सेशन नहीं था, बल्कि एक आध्यात्मिक संवाद था, जिसने संगीत के माध्यम से आत्मा को छू लिया।
यह किस्सा इस बात का प्रमाण है कि नुसरत फतेह अली खान केवल एक गायक नहीं थे। उनका गायन भावनाओं, ऊर्जा और रूहानियत का सीधा प्रसारण था।
1997 में, केवल 48 वर्ष की आयु में नुसरत का निधन हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। उनकी रिकॉर्डिंग्स, उनके गीत और उनकी रूहानी आवाज आज भी लाखों दिलों में गूंजती है।
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